जिंदगी की उथल पुथल में कोई कितना फँस सकता है, अभी तक स्पष्ठ नहीं हो पा रहा है. जैसे जैसे जीवन बढ़ता जा रहा है, उथल पुथल, तनाव, चिंताए, एक अजीब सी उहापोह भरी स्थिति बढ़ती ही जा रही है.
ये समछना बहुत ही मुश्किल होता जा रहा है कि आखिर मैं जिंदगी से या ये जिंदगी मुझसे चाहती क्या है?
संतोष, ये दूर दूर तक मेरे जीवन में कही नज़र नहीं आ रहा, किसी भी काम में, बात में, रिश्ते में, परिवार में, कार्यालय में, दोस्ती में, इक्छा में, सपने में, वर्तमान में, भविष्य में, फ़र्ज़ में, क़र्ज़ में, पैसे से, व्यवहार से, सब हा सब स्थानो पे इसकी कमी है.
क्या करू, क्या न करू? कौन समझायेगा? किस का हाथ पकडू जो मुझे शांति और संतुष्टि की ओर ले जाये. या ये मान कर शांत हो जाऊ की यही जीवन है. जो जैसा चल रहा है चलने दू और मूक बधिर बन कर देखता रहूं।
एक मन कहता है सब कुछ छोड़ छाड़ कर चुप चाप बैठ जाऊ, पर वही दूसरा मन कहता है नहीं, मैं संतुष्ट नहीं तो क्या हुआ कम से कम अपनों को तो हाथ पकड़ संतुष्टि की राह ले जाऊ। पर यहाँ भी ये तय करना मुश्किल हो जाता है की कौन है मेरा अपना? वो जो मुझे इस श्रिस्टी में लाया, या वो जो इस श्रिस्टी में लाने वालो के कारण मुझसे जुड़ा, या वो जिसे मैंने खुद से जोड़ा, या वो जिसे मैं इस श्रिस्टी में लाया?
मन, आस्था और संस्कार कहते है सब मेरे अपने है, मेरा फ़र्ज़ और क़र्ज़ यही कहता है की मैं खुद को इनके लिए समर्पित कर दू. पर मानव इक्छा भी तो महत्व रखती है, जो बदले में कुछ चाहती है, अगर मैं खुद को समर्पित कर सकता हूँ तो बदले में थोड़ा समर्पण खुद के लिए चाहना क्या मेरा गुनाह है?
आप सोच रहे होंगे की मैंने शीर्षक में १२ '?' क्यूँ लगाये जब की केवल एक से ही काम चल सकता था, तो आप की जानकारी के लिए ये बता दूँ की ये "?" उन १२ लोगो की उपस्थिति को दर्शाते है जिनको की मैं अपना मनाता हूँ, या ये कहु की जनके प्रति मेरे मन में विचार उमड़ते है, उनके लिए कुछ करने की चाह हमेशा विदमान रहती है.
मेरे इस गधे रूपी जीवन में सिर्फ इन्ही लोगो का बोछ, भार, जिंम्मेदारी या फ़र्ज़ उठाने का मन करता है। बिना शर्त, की वो मुझे भी कुछ मूल्य दे या ना दे। पर हाँ उनकी एक आवाज़ पर मैं सहस्र दौड़ पडूंगा।
अब इनमे से मुझे कौन, कितना अपना मनाता है, ये, या तो वो जाने, या भगवान पर, मैं सच में बहुत Confused हूँ.
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