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Monday, December 5, 2016

Unable to Think or Decide.

सच में कभी कभी बहुत मुश्किल होता है , ये सोच पाना की कौन गलत है और कौन सही, हम कोई गलती बार बार किये जा रहे है , या कोई और हमें न समझ कर गलती पे गलती किये जा रहा है, गुत्थी उलझती ही जा रही है, अब तो ये सोचना भी की कभी सुलझेगी नामुमकिन सा ही लग रहा है?

हम तो तैयार बैठे है अपनी गलती को स्वीकारने के लिए अगर कोई हमसे हुई है, पर कोई हमे समझाए भी तो, या फिर हमे मौका दे की हम उनकी गलतियों को सुधारने की कोशिश या प्रयास करे.

कहते है न एक से भले दो, और दो से भले तीन, पर यहाँ तो तीन ने ही सारी व्यवस्था ख़राब कर के रख दी है, दो ही होते तो ज्यादा सही था. एक कान एक मुह का इतना प्रिय हो गया है की तीसरे की आवाज़ पहचान ही नहीं रहा है, गलती कौन नहीं करता? पर उसे सुधारने की भी कोशिश की जानी चाहिए, समय और दुरी की साथ अगर इसको दुरुस्त नहीं किया गया तो यही गलती अपराध सी लगने लगती है, फिर जब तक इस अपराध की सजा न मुकम्मिल हो, संतोष नहीं मिलता, पर यहाँ तो अपराध घोषित कर सजा तक देने का समय भी नहीं किसी के पास.

अपने दूर और पराये करीब हो गए है, हर बात, हर अपराध के दो पहलू होते है, सिर्फ अपना पक्ष देख कर उसे तय नहीं करना चाहिए, कुछ सामने वाले की परिस्थिति, और मज़बूरी भी हो सकती है. अकेले तो सभी चल सकते है, पर सबको साथ ले के चलने वाले पे क्या बीतती है ये अकेले चलने वाला कब सोचेगा.

अभी समय हाथ से नहीं गया है, जीवन बहुत पड़ा है, सुधार के लिए, कुछ कहो कुछ सुनो, शायद कोई समाधान निकल आये, जिनसे उम्मीद कर सकते है अगर उन्होंने ही साथ छोड़ दिया तो बाकि दुनिया तो पराई है, उसका क्या मोह और चिंता करना.

सभी व्यस्त है अपने जीवन में, कुछ समय निकल कर अगर पुरानी यादो और रिस्तो को दे दिया जाये तो जिंदगी और भी खूबसूरत होगी.


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