दो उल्लू एक वृक्ष पर आ कर बैठे। एक ने साँप अपने मुँह में पकड़ रखा था।
दूसरा एक चूहा पकड़ लाया था।
दोनों जैसे ही वृक्ष पर पास-पास आकर बैठे। एक के मुँह में साँप, एक के मुँह में चूहा।
साँप ने चूहे को देखा तो वह यह भूल ही गया कि वह उल्लू के मुँह में है और मौत के करीब है। चूहे को देख कर उसके मुँह में रसधार बहने लगी। वह भूल ही गया कि मौत के मुँह में है। उसको अपनी जीवेषणा ने पकड़ लिया।
और चूहे ने जैसे ही देखा साँप को, वह भयभीत हो गया, वह काँपने लगा। ऐसे ही मौत के मुँह में फसा है, मगर साँप को देख कर काँपने लगा।
वे दोनों उल्लू बड़े हैरान हुए।
एक उल्लू ने दूसरे उल्लू से पूछा कि भाई, इसका कुछ राज समझे ?
दूसरे ने कहा, बिलकुल समझ में आया।
जीभ की, रस की, स्वाद की इच्छा इतनी प्रबल है कि सामने मृत्यु खड़ी हो तो भी दिखाइ नही पड़ती।
और यह भी समझ में आया कि भय मौत से भी बड़ा है: मौत सामने खड़ी है, उससे यह भयभीत नहीं है चूहा, लेकिन भय से भयभीत है कि कहीं साँप हमला न कर दे।'
निष्कर्ष -
मौत से हम भयभीत नहीं हैं, हम भय से ज्यादा भयभीत हैं।
और लोभ स्वाद का, इंद्रियों का, जीवेषणा का इतना प्रगाढ़ है कि मौत चौबीसों घंटे खड़ी है, तो भी हमें दिखाई नहीं पड़ती।
हम अंधे बने हुये हैं।
पूरी जिंदगी की यही सच्चाई है कि हम सभी काल के मुख में फसे हुए हैं किंतु अपने इंद्रियों के वसीभूत होकर लोभ रस की, स्वाद की इच्छा, तृष्णा, वासना इतनी प्रबल रखते हैं कि भूल जाते हैं कि मौत सामने खड़ी है और कब उसका निवाला बन जाए।
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